योगेश भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार
कितना फर्क है आवाम यानी जनता और सियासी दलों में। आवाम सरकार बनाती है और वो सरकार सियासी दलों की हो जाती हैं। आवाम मुद्दे उठाती है और सियासी दल उन पर रोटियां सेक जाते हैं। आवाम भरोसा जताती है और सियासी दल फरेबी हो जाते हैं।
आवाम हालात से मजबूरन समझौता कर लेती है जबकि सियासी दल जानबूझकर ऐसे हालात पैदा करते हैं। गैरसैंण को लेकर यही सब तो होता रहा है अभी तक ! ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की डेढ़ लाइन की एक सरकारी अधिसूचना जारी कर सरकार ने कितनी आसानी से आवाम के एक मुद्दे को हवा कर दिया।
सरकार बोली कि गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाकर उसने जनभावनाओं का सम्मान किया है, सरकार ने कहा और आवाम ने मान भी लिया और खुशियां भी मना लीं। आवाम की नादानी देखिए, सरकार के इस फैसले को आधी-अधूरी ही सही कहकर अपनी जीत मान लेती है।
उसको अंदाजा भी नहीं कि सरकार का यह कितना बड़ा दांव है। वक्त बीतने दीजिए, पता चल जाएगा कि सरकार गैरसैंण की कितनी ‘सगी’ है। जो सियासी दल गैरसैंण पर शह-मात का खेल खेल रहे हैं, उनकी भी ‘हकीकत’ एक दिन सामने आ जाएगी। बस दुखद यह है कि तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
सच यह है कि गैरसैंण ग्रीष्मकालीन राजधानी बनने का मतलब जनभावानाओं का सम्मान नहीं, भविष्य की संभावनाओं का दम तोड़ना है। पहाड़ की राजधानी पहाड़ में होने के सपने का टूटना है। गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का मतलब देहरादून को स्थायी राजधानी बनाने का रास्ता साफ करना है।
खैर सरकार ने जो किया वह तो होना ही था। गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी का झुनझुना पकड़ाया जाना तो उसी दिन से तय था, जब गैरसैंण को लेकर नए सिरे से मुट्ठियां तननें लगीं थीं। करना तो कांग्रेस भी यही चाहती थी मगर हिम्मत नहीं जुटा पायी या फिर मौका नहीं मिला। वहीं भाजपा ने इसी को बड़ी चतुराई से अंजाम दे दिया।

जनता शायद ही कभी यह खेल समझ पाए कि भाजपा-कांग्रेस राजनैतिक प्रतिद्वंदी भले हों मगर सवाल राजनैतिक वजूद का या फिर राजनेताओं के निजी हित का होगा तो कोई एक दूसरे की खिलाफत नहीं करेगा। मजबूरी में विरोध करना भी पड़ा तो सिर्फ ‘रस्मी’ विरोध होगा।
उत्तराखंड में इसके कई उदाहरण रहे हैं। भू-कानून का मसला हो या फिर नगर निकायों का सीमा विस्तार, विधायकों के वेतन भत्तों में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हो या दायित्वों और सिडकुल की जमीनों की बंदरबाट, ऐसे तमाम मसले हैं, जिन पर सत्ता पक्ष को विपक्ष का मौन समर्थन रहा है।
मंशा सियासतदांओं की साफ होती तो गैरसैंण अंतरिम सरकार में ही राजधानी घोषित हो गयी होती। एक सवाल उठाना यहां बेहद जरूरी है कि जब पहाड़ के सवाल पर अंतरिम सरकार में मुख्यमंत्री बदल सकता है तो उसी सवाल पर पहाड़ की राजधानी पहाड़ पर क्यों नहीं बनी ? क्या सिर्फ इसलिए, क्योंकि गैरसैंण नौकरशाहों और सियासतदांओं को रास नहीं आ रहा था?
गैरसैंण के मुद्दे पर इतिहास देखिए कैसे खुद को दोहरा रहा है। बात बीस साल पुरानी है, उत्तराखंड का अलग राज्य बनना तय हो चुका था। यह वो वक्त था जब इतिहास और भविष्य की इबारत एक साथ लिखी जा रहा थी। सियासत की नयी बिसात सज रही थी तो नए सिस्टम की नींव रखी जा रही थी। उस वक्त भी वही घटित हुआ जो आज हो रहा है।
जो उत्तराखंड आकार ले रहा था उसमें पहाड़ हाशिए पर धकेल दिया गया था। नए राज्य की भौगोलिक सीमाओं के निर्धारण से लेकर परिसंपत्तियों के बंटवारे और विधानसभा सीटों पर पहाड़ मात खा चुका था। अलग राज्य पहाड़ की जरूरत के नाम पर जरूर बन रहा था। लेकिन जो तानबाना बुना जा रहा था उसके केंद्र में न पहाड़ था और न पहाड़ का लोक।

नए राज्य की जरूरत संविधान की धारा 371 के तहत ऐसे विशेष दर्जे की थी, जिससे यहां जल, जंगल, जमीन, नदियां और मानव संसाधन को संरक्षित किया जाता। पूर्वोत्तर समेत देश के 11 राज्यों की तरह सीमांत, पर्वतीय और विषम भौगोलिक परिस्थतियों वाले उत्तराखंड को धारा 371 के अंतर्गत अपने संसाधन, भूमि, संस्कृति, परंपराओं और सामाजिक प्रथाओं के संरक्षण की व्यवस्था है।
नागालैंड, आसाम, मणिपुर, सिक्किम, अरूणाचल, हिमाचल और आंध्राप्रदेश जैसे राज्यों को इसी धारा 371 के अंतर्गत अलग-अलग विशेषाधिकार हासिल हैं। महाराष्ट्र और कर्नाटक में तो संविधान के इसी अनुच्छेद के अंतर्गत कुछ जिलों तक को विशेषाधिकार हासिल हैं।
उत्तराखंड का दुर्भाग्य यह रहा कि सियासी नेतृत्व ने इसकी पैरवी ही नहीं की। विशेष राज्य का दर्जा तो छोड़िये, उत्तराखंड की तो राजधानी तक तय नहीं की गयी। संभवतः यह अकेला ऐसा अभागा राज्य रहा होगा जिसका जन्म बिना राजधानी के हुआ। पैरवी होती भी कैसे ? राज्य जनता के लिए बना होता तो अधिकारों की पैरवी भी होती।
उत्तराखंड राज्य का गठन तो केंद्र और राज्य सरकार की एक सियासी चाल थी। एक राजनैतिक दल की सियासी जमीन बचाने और राजनैतिक संतुलन साधने के लिए उत्तराखंड बनाया रहा था। ठीक उसी तरह जिस तरह आज गैरसैंण ग्रीष्मकालीन राजधानी बनायी गयी है।
सच तो यह कि बीस बरस पहले न राज्य जनता के लिए बना और न आज राजधानी। जनता का राज्य होता तो राजधानी गैरसैंण पर किसी तरह का कोई संशय ही नहीं होता। शासन और प्रशासन राज्य के प्रति जिम्मेदार, जवाबदेह और संवेदनशील होता।

फैसले व्यवहारिक होते, संसाधनों की लूट नहीं मची होती। पौड़ी वीरान नहीं होता, कमिश्नरी और वहां स्थित मंडलीय कार्यालय भुतहा नहीं होते। अल्मोड़ा और पौड़ी जैसे सांस्कृतिक विरासत वाले नगर पलायन की मार नहीं झेल रहे होते। प्रसूताएं सड़क पर दम नहीं तोड़ रही होती। स्कूल वीरान और गांव खंडहर नहीं हुए होते। डाक्टर और शिक्षक पहाड़ चढ़ने से परहेज नहीं करते।
पलायन रोकने के लिए आयोग नहीं, व्यवहारिक योजनाएं बनतीं। राजधानी के लिए आयोग नहीं, पहाड़ की राजधानी पहाड़ पर तय होती। आज कह सकता है कोई कि यह राज्य जनता का है ? गढ़वाल से कुमाऊं तक उत्तरकाशी, पौड़ी, नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़़ आदि किसी भी पुराने नगर में जाकर पूछिए, हर जगह यही सुनायी देगा कि उत्तराखंड बनने के बाद हालात बदतर हुए हैं।
इसमें अब कोई दोराय नहीं कि यह राज्य जनता का नहीं, भ्रष्ट नौकरशाहों का है। कार्पोरेट्स का है, राजनेताओं का है, ठेकेदारों का है । सत्ता के दलालों का है, जमीन के सौदागरों का है। यह राज्य एक आम व्यापारी और कारोबारी का भी कतई नहीं है, यह राज्य माफिया का है। शराब माफिया, खड़िया और खनन माफिया, जंगल माफिया, चिकित्सा माफिया और शिक्षा माफिया के लिए ही ‘स्वर्ग’ है यह राज्य।
दोष दरअसल इमारत का नहीं, इसकी ‘बुनियाद’ रखने वालों का है। कहावत है न – ‘बोया पेड़ बबूल का तो नीम कहां से होय’ उत्तराखंड के साथ ऐसा ही हुआ। जब राज्य की आधारशिला रखी गयी तब सियासी नेतृत्व इतना अपरिपक्व और कमजोर था कि नए राज्य के लिए बुनियादी फैसले लेने के बजाय वह अनिश्चितता, और अंतर्कलह में घिरा था।
सियासी नेतृत्व राज्य की दिशा तय करने के बजाय सत्ता संघर्ष में उलझा रहा और राज्य की कमान पहले दिन से ही उस नौकरशाही के हाथ में थमा दी जो पहाड़ के नाम पर नाक भौंह सिकोड़ती थी। राज्य की बुनियाद वो नौकरशाही रख रही थी जिसके लिए पहाड़ पीपीपी यानी पनिस्मेंट, प्रोबेशन और प्रमोशन था।
अब ऐसी नौकरशाही से कॉपी-पेस्ट के अलावा और क्या उम्मीद की जा सकती थी ? राज्य के भविष्य से जुड़ा हर मुद्दा हाशिए पर जाना ही था। साधन और संसाधनों की लूट होनी ही थी। खेल अकेले नौकरशाही का ही नहीं है, सियासतदांओं की भूमिका भी बराबर की रही है।
हर काल में नौकरशाहों के हाथ में कमान दी भी सियासतदांओं ने ही। विडंबना यह रही कि जिन नौकरशाहों और कर्मचारियों की निष्ठा राज्य के साथ रही सियासतदांओं ने उन्हें हमेशा हाशिए पर रखा। बीस बरस पहले जो नौकरशाह उत्तराखंड में नौकरी नहीं करना चाहते थे आज व्यवस्था उनके ही इर्द गिर्द घूम रही है।
राज्य के पूरे सिस्टम को यह नौकरशाही अपने मन माफिक ढाल चुकी है। जिन्हें राज्य का भूगोल तक नहीं मालूम आज वो राज्य का भविष्य तय करते हैं, उसकी प्लानिंग करते हैं। नौकरशाही की तरक्की का आलम यह है कि तहसीलदार भी आईएएस बनने लगे हैं। यही वो नौकरशाही है जो गैरसैंण नहीं जाना चाहती। स्थायी राजधानी के लिए आयोग का गठन करना और साल दर साल उसे विस्तार देने के पीछे भी तो यही नौकरशाही थी।
गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने के पीछे भी वही सिस्टम है जिसने बीस साल में देहरादून में अपना साम्राज्य खड़ा कर दिया है । आज जनता से कहा जाता है कि झूमो, नाचो, जश्न मनाओ। सरकार ने ग्रीष्मकालीन राजधानी बना तो दी मगर न उसका कोई मास्टर प्लान है न कोई ब्लू प्रिंट।

दो राजधानियों का भार झेलने की स्थिति में यह राज्य नहीं है, यह सरकार भी अच्छे से जानती है, तो फिर जनता के साथ मजाक क्यों ? होगा क्या इस फैसले से ?
गैरसैंण में कुछ बिल्डिंगे बनेंगी, कुछ सड़कें बनेंगीं, सरकारी खरीद होगी, चहेतों को ठेके मिलेंगे और गैरसैंण के नाम पर देहरादून में ही ‘चोर दरवाजों’ से कुछ भर्तियां होंगी। इसमें भी भला किसका होगा, उन्हीं का जो देहरादून में राजधानी के नाम पर बीते सालों में हजारों करोड़ बहा चुके हैं।
इतिहास की तारीख में गैरसैंण भले ही ग्रीष्मकालीन राजधानी बन गयी हो, मगर गैरसैंण एक अधूरा ख्वाब है। गैरसैंण एक अधूरी कहानी है। गैरसैंण एक ऐसी संघर्षकथा है, एक ऐसी यात्रा है जिसका अभी ‘मुकाम’ तक पहुचाना बाकी है।
सनद रहे जब राज्य नहीं था तब भी गैरसैंण था, जब राज्य अंगड़ाई ले रहा था तब भी गैरसैंण था। गैरसैंण न जंग है औैर न कोई मसौदा, गैरसैंण तो उत्तराखंड के सिस्टम को लगे मर्ज की दवा भर है। गैरसैंण को जरूरत है बस थोड़ी सी सियासी ताकत की । उम्मीद की जाती है कि देर होली, अबेर होली…होली जरूर, सबेर होली..।
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